हज़रत ख्वाज़ा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह एक अति प्रसिद्ध सूफी सन्त थे. इन्होंने 12वीं शताब्दी में अजमेर में चिश्ती पंथ की शुरूआत की थी. ख्वाज़ा मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ईरान (Iran) में सन् 1141 ई0 में हुआ था. बचपन से ही उनका मन सांसारिक चीजों में नहीं लगता था. वह परिवार से अलग हट कर रूहानी दुनियां से जुड़े रहते थे. वह मानव जगत की सेवा को ही अपने जीवन का एकमात्र धर्म मानते थे. 50 वर्ष की आयु में ही ख्वाज़ा जी भारत आ गए यहां उनका मन अजमेर में ऐसा रमा कि वे फिर यहीं के होकर रह गए और यहीं पर भक्तों की सेवा में लग गए. वह हमेशा खुदा से अपने भक्तों का दुःख-दर्द दूर करके उनके जीवन को खुशियों से भरने की दुआ मांगते थे. ख्वाज़ा साहब ने अपना पूरा जीवन लोगों की भलाई और खुदा की इबादत में गुजार दिया. हर छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी लोग अपनी परेशानियां और दुःख लेकर उनके पास आते और अपनी झोलियों में खुशियां और सुकून भर ले जाते थे. ख्वाज़ा साहब ने दुनियां के लोगों का भला करते हुए सन् 1230 ई0 में इस जहां से रूख़्सत ले ली थी.
दरगाह अजमेर शरीफ का भारत में बड़ा महत्त्व है. ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह-ख्वाजा साहब या ख्वाजा शरीफ अजमेर आने वाले सभी धर्मावलंबियों के लिये एक पवित्र स्थान है. इसका निर्माण 13वीं शताब्दी में हुआ माना जाता है. हर वर्ष सभी धर्मों के लाखों लोग इस दरगाह में मन्नत मांगने आते हैं और मुराद पूरी होने पर अपनी हैसियत के अनुसार चादर चढ़ाते हैं. इनके भक्तों मे गरीब से गरीब और अमीर से अमीर लोग होते हैं. खिलाड़ियों और फिल्मी दुनियां (Film World) की कोई न कोई बड़ी हस्ती अपनी मुराद पूरी करने के लिए इस दरगाह पर दस्तक देती रहती है. कोई भी बड़ा काम करने के लिए हर क्षेत्र से लोग यहां पर आकर चादर भेंट करते हैं.